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“है प्रीत जहां की रीत सदा, मैं गीत वहाँ का गाता हूँ,

भारत का रहना वाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ..”

“लग जा गले, कि फिर ये हसीन रात हो न हो,

शायद कि फिर इस जन्म में मुलाकात हो न हो”

हैं? इतना विरोधाभास? परंतु इन्हीं विविधताओं से भरा था हरीकृष्ण गिरी गोस्वामी का जीवन। शायद आप इस नाम से इस व्यक्ति को नहीं जानते होंगे परंतु यदि आप मनोज कुमार को नहीं जानते हैं तो निस्संदेह आप भारतीय सिनेमा को बिल्कुल नहीं जानते हैं।

लोग एबटाबाद (Abbottabad) को आज इसलिए जानते हैं कि वहां पर 9/11 को रचने वाला दुर्दांत आतंकी ओसामा बिन लादेन मारा गया था। परंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि इसी भूमि पर वर्ष 1937 में 24 जुलाई को गोस्वामी परिवार के घर हरीकृष्ण गिरी गोस्वामी भी जन्मे थे। परंतु ये किशोरावस्था में भी ठीक से नहीं आ पाए थे जब भारत पर विभाजन का ग्रहण आ पड़ा और करोड़ों हिंदुओं और सिखों की भांति गोस्वामी परिवार को भी नये भारत में शरण लेनी पड़ी।

काफी समय तक मनोज कुमार और उनके परिवार को शरणार्थी बनकर रहना पड़ा। इस दौरान मनोज कुमार को वह सब देखना पड़ा जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। नन्हीं सी उम्र में ही मनोज कुमार के अंदर इतना गुस्सा भर गया था कि एक दिन उन्होंने हाथ में लाठी उठा ली और डॉक्टरों व नर्सों को पीटना शुरू कर दिया क्योंकि उनके लचर व्यवहार के कारण उनकी मां ने अपना छोटा पुत्र खो दिया था।

परंतु मनोज इस त्रासदी से उबरते हुए आगे बढ़े और उन्होंने अपने परिवार को संभालने का, आगे बढ़ाने का बेड़ा उठाया। वर्ष 1957 में मात्र 20 वर्ष की आयु में उन्होंने फिल्मों में कदम रखा। उनकी पहली फिल्म ‘फैशन’ थी जिसमें उन्होंने 80 साल के बुजुर्ग का किरदार निभाया था। उन्होंने दिलीप कुमार के एक किरदार से प्रेरित होकर अपना स्क्रीन नेम ‘मनोज कुमार’ रखा और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

डेब्यू फिल्म के तीन साल बाद वर्ष 1960 में मनोज कुमार को ‘कांच की गुड़िया’ में लीड रोल मिला था। उसके बाद मनोज कुमार ने कई यादगार फिल्में की। इनमें ‘पिया मिलन की आस’, ‘हरियाली और रास्ता’ तक वो ठीक ठाक चल रहे थे परंतु उनका भाग्य बदला वर्ष 1964 में आई राज खोसला की फिल्म ‘वो कौन थी?’ से, जहां उनके साथ थी साधना शिवदसानी। हॉरर और रोमांस के अनोखे संगम से परिपूर्ण  इस फिल्म ने मनोज कुमार को रातों रात एक स्टार में परिवर्तित कर दिया था। अब देव आनंद, राज कपूर और यूसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार को टक्कर देने एक नया सितारा हिन्दी सिनेमा के मंच पर आ चुका था।

परंतु मनोज के भाग्य में तो कुछ और ही लिखा था। उस समय उनका परिचय क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त से हुआ जो अमर क्रांतिकारी भगत सिंह की कथा को चलचित्र के माध्यम से सामने लाना चाहते थे। मनोज कुमार ने न केवल उनका समर्थन किया अपितु स्वयं भगत सिंह को आत्मसात करने का निर्णय किया और परिणामस्वरूप वर्ष 1965 में सामने आई ‘शहीद’ जो भारतीय देशभक्तों के लिए सर्वप्रथम लोकप्रिय मूवी थी और जिसके गीतों से सभी अभिभूत हो गए थे। स्वयं भारत के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री इसे देख बड़े भावुक हुए और उन्होंने मनोज कुमार को ऐसी ही फिल्में बनाने का सुझाव दिया ताकि ‘जय जवान, जय किसान’ की भावना को बढ़ावा दिया जा सके। उसके बाद फिल्म ‘उपकार’ जिसे स्वयं मनोज कुमार ने निर्देशित किया वह बॉक्स ऑफिस पर ब्लॉकबस्टर सिद्ध हुई, परंतु इसे देखने के लिए लालबहादुर शास्त्री जीवित न रह सके।

परंतु एक समय ऐसा भी आया जब मनोज कुमार को अपने नीतियों पर अडिग रहने के लिए शासन के दमनचक्र का सामना भी करना पड़ा। ये वो समय था जब मनोज कुमार अपने सफलता के शिखर पर थे और उन्हें उद्योग के सबसे शक्तिशाली अभिनेताओं में गिना जाता था। देशभक्ति और प्रयोग से परहेज न करने के कारण उनका नाम ‘भारत कुमार’ पड़ चुका था। परंतु इसी बीच देश में आपातकाल लागू हो गया और मनोज कुमार, इंदिरा गांधी और उस वक्त के तमाम नेताओं से अच्छे संबंध रखते थे लेकिन बावजूद इसके वो इमरजेंसी के विरोध में थे। ऐसे में एक दिन मनोज कुमार को सूचना और प्रसारण मंत्रालय से अधिकारी का फोन आया। उन्होंने मनोज कुमार से एक ऐसी डॉक्यूमेंट्री डायरेक्ट करने के लिए कहा जो इमरजेंसी के समर्थन में थी। इसकी कहानी अमृता प्रीतम ने लिखी थी। मनोज को स्क्रिप्ट भी भेजी गई थी लेकिन मनोज ने फोन पर ही इस ऑफर को ठुकरा दिया।

इसके तुरंत बाद मनोज ने अमृता प्रीतम को फोन किया और पूछा- क्या लेखक के रुप में आपने खुद से समझौता कर लिया है? मनोज के इतना कहते ही अमृता प्रीतम शर्मिंदा हो गईं और उन्होंने मनोज से कहा कि आप इस स्क्रिप्ट को फाड़ कर फेंक दीजिए। पत्रकार रंजन दास गुप्ता ने बाद में अपने लेख में इस वाकये का जिक्र किया था।मनोज कुमार के इस व्यवहार के कारण संजय गांधी उनसे बेहद क्रुद्ध हुए और जब उनकी “दस नंबरी” इमरजेंसी के दौरान 1976 में रिलीज हुई तो सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने इस फिल्म को अकारण प्रतिबंधित कर दिया। फिर मनोज कुमार ने इस फिल्म को रिलीज करवाने के लिए कोर्ट में केस लड़ा। लाखों रुपए खर्च हुए पर मनोज ने हार नहीं मानी। कोर्ट में ये केस चल ही रहा था कि वर्ष 1977 में जनता दल और जनसंघ की सरकार बन गई। नई सरकार आने पर लालकृष्ण आडवाणी सूचना और प्रसारण मंत्री बने और फिर मनोज कुमार ने केस जीत लिया।

आज कुछ कलाकार ऐसे हैं जो केवल तुष्टीकरण के लिए देश के दुश्मनों तक से हाथ मिलाने को तैयार हैं। पर एक समय ऐसा भी था जब मनोज कुमार जैसे कलाकार अपने आचरण के लिए अत्याचारी शासन के विरुद्ध दो दो हाथ करने को तैयार हो जाते थे। धन्य हैं मनोज कुमार, जो भारत भूमि पर जन्में!